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कविता

गाँधी जी

हरे प्रकाश उपाध्याय


मेरे इतिहास की किताब में
सोये पड़े गाँधी जी!
उठो
और मेरे बस्ते से बाहर आओ
कि तुम्हें ढोते-ढोते
दुख रही है मेरी पीठ
कंधे छिल गए हैं बापू
तुम्हारे उपदेश काम नहीं आते
जीवन में
तुम्हारे बताये रास्ते पर चलकर
मैं कहीं और जा पहुँच जाता हूँ
मंजिल नहीं मिलती
दोस्त दुश्मन बनकर
लूट लेते हैं रास्ते में

बापू!
तुमने आजादी माँगी थी
बनिहार चरवाह
किसान मजूर के लिए
मगर इसे चंद सफेदपोश, दलालों
हाकिम-हुक्मरानों ने फिर जकड़ दिया है
बेड़ियों में
हम नालायक हो रहे हैं
स्कूल के ब्लैकबोर्ड पर
उग नहीं रहा है सफेद खड़िया
मेरे बस्ते से बाहर आओ बापू
हमारी दशा पर तरस खाओ बापू!

 


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